
मुझसे ज्यादा खुद रोई मेरे पहले दर्द पे ,
फिर सिलसिला चलता आया वर्षो से
हर दर्द को समेट मुस्कराती है ,
बेइंतहा मोहब्बत मुझ पर लुटाती है
जीत मेरी , ईनाम उसका
नाम मेरा , स्वाभिमान उसका
मेरी खुशियाँ , उम्मीद उसके
मेरी हँसी जिन्दगी उसकी ;
मुझको अपने जीने की आस बना लिया ,
मेरे अस्तित्व की खातिर खुद का वजूद मिटा लिया ;
डरती थी तुझे खोने के ख्याल से भी ,
चाहती थी जीना तेरे सामने ही ,
पर ,
तू क्या जी पाती मेरे जाने के बाद?
देह रह जाती जिन्दगी खोने के बाद ;
छोड़ दिया उन ख्यालों को जो कर देते थे इतना बेचैन,
अब तो बस इन आँखो का सपना हैं तेरे सुख-चैन ।
बहुत सी बातें तुझसे कहकर नही पाती ,
और बिन कहे रह भी न पाती ;
याद है जब पहली बार हुए थे अलग ?
रोए थे दोनो अलग-अलग,
मेरे विश्वास की खातिर तू हँस रही थी ,
और उस हँसी की खातिर मैं,
कितना समेट लिया खुद को मेरी खुशियो के लिए ,
फिर भी मेरे हर दर्द को जान लिया बिन कहे ;
हर वक्त मे तेरा साथ मिला ,
हर जख्म पर तेरा एहसास मिला ;
अब तो लफ्ज भी कम पड़ने लगे
“चन्द पंक्तिया तुझे क्या रचेगी” ,
ये भी अब कहने लगे ;
फिर भी इसका अन्त किए जा रही हूँ ,
इस रचना को एक नाम दिए जा रही हूँ ,
माँ ।